Saturday, June 27, 2009

एक हसीन यादों का कारवां
जो तुमने आंखों से आंखों के रास्‍ते
मेरे ि‍दल में उतारा था।
मायूसी और परेशानी के तंग रास्‍तों पर आज भी
मुझे सफर में अधूरा नहीं छोडता।

इस बादल की कहां ि‍बसात थी जो
मुझे भीगोकर चला जाए,
तुम्‍हारे पल्‍लू तले मैं आंखों में तैरते हर सपने को
सूखाता रहा।
और तुम सूखे सपनों पर कहीं चांद तारों की नक्‍काशी कर बैठती थी
तो कहीं भावनाओं से भरभराएं आसुंओं की बूंदे सजा देती थी।

उस फूल की पंखुि‍रयां आज भी
मेरी ि‍कताब के बीच दबकर भी आहत नहीं हुई है।
होती भी कैसे,
उसकी ि‍शराओं में तेरी मोहब्‍बत की महक जो अभी ि‍जंदा है।
ि‍जस भोलेपन और मासूि‍मयत से तुमने
मुझे अपना कहा था
वो शब्‍द आज भी ये हवाएं मुझे कभी कभी
याद ि‍दला जाती है।

तुमने ही तो कहा था
रास्‍ते कभी खत्‍म नहीं होते
जहां रास्‍ते बंद हो जाते है
वहां संघर्ष समझो।
रास्‍ते बनाने का संघर्ष।
अब जानता हूं ि‍क तुम नहीं हो,
लेि‍कन आज भी तुम्‍हारी ये बातें मुझे संघर्ष को प्रेि‍रत करती है।
ऐसे रास्‍ते बनाने के ि‍लए जहां मैं पहुंचता हूं तो तुम्‍हे
हंसती ि‍खल ि‍खलाती हुई मेरी सफलता पर खुश पाता हूं।

1 comment:

gungun said...

भगवती लालजी

आपकी भावनाएं अच्‍छी है। आप इसे काव्‍य रूप में व्‍यक्‍त करते हैं। अच्‍छा है, लगे रहो।

भूपेन्‍द्र